अंधेरे से डरते है हम! – फिरभी, अंधेर की चादर ओढ़े सोये रहते हम!
– पल दो पल का शायर ,
समाज विकास संवाद!
न्यू दिल्ली,
अंधेरे से डरते है हम! – फिरभी, अंधेर की चादर ओढ़े सोये रहते हम !- पल दो पल का शायर!
अंधेरे से डरते है हम! – फिरभी, अंधेर की चादर ओढ़े सोये रहते हम !
– पल दो पल का शायर
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अंधेरे से डरते है हम !
फिरभी , अंधेर की चादर ओढ़े सोये रहते हम !
आंखे मूंदकर पड़े रहते ऎसे की ,
खुदकी परछाई भी न दिख जाए ।
कियूं कि, अंधेरे से डरते है हम !
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कभी, रोशनी भी आयी थी हमे जगाने
पर, उठ न पाए हम!
घणी काली चादर में लिपटे –
सोये जो थे आपने अहम ,
सच्चाई कैसे कही दिखती ! अंधेरे से डरते जो है हम !!
***
भले ही, धुंदली सी मेघ उतार छाये जमीन पर –
वो भी तो हमें दिखाई ना देती –
अपनी परछाई जो छुपाई बखूबी हमने –
अंधेर की चादर से लिपटी तन मन हमारे !
यूँ ही तो ना ! अंधेरे से डरते है हम !
अंधेरे से डरते है हम! – फिरभी, अंधेर की चादर ओढ़े सोये रहते हम!
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घने कलुष चादर तले – संगे मर्मर की शीतलता !
जैसे फर्श पर ज़न्नत उतार आयी-
आघोष में लिपट के सोई !
आंखे मुंड के बूँद है हम
जन्नत की गहरी नींद को ओढ़े !
कियूं की ! अंधेरे से डरते जो है हम !
*****
कुछ ना दिखते हमें !
ना जलती हुई आबरू की चिता – ना मृत्यु की सिसकियाँ !
ना नरक की एहसास – न सच्चाई की आभाष !
अंधेर की चादर ओढ़े सकून से सोयें जो है हम !
ऐसे ही ना , अंधेर से डर लगे हमे –
अंधेरे से खूब जो डरते है हम !!!
…
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